ओलंपिक के मुकाबले देखते समय आपने शायद इस बात पर गौर किया हो या ना भी किया हो कि गोल्ड मैडल जीतने के बाद उसे अपने दांतों से चबाते हैं। तो क्या आपने कभी सोचा कि आखिर खिलाड़ी ऐसा क्यों करते हैं?

ऐसा करने की आखिर क्या वजह है? आज हम आपको इसी बारे में बताने जा रहे हैं। हम आपको इस प्रथा के बारे बता ही देते हैं कि आखिर ये कब से शुरू हुई और इसकी शुरुआत किसने की थी।

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एथलीटों को अपने मेडल को मुंह से चखना पड़ता है। इसके पीछे एक बहुत पुरानी परम्परा है। 19 वीं शताब्दी में अमेरिका, ब्राजील, कनाडा और साउथ अफ्रीका, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया के लोग एक बड़ा सा झुंड बनाकर सोना खोजने निकलते थे। उन्हें जब सोने जैसी चीज मिलती थी तो वो उसे दांतों से चबा कर देखते हैं कि अगर उस पत्थर पर दांतों के निशान बन गए तो वो असली सोना होगा। उस समय सोने की पहचान करने का यही तरीका था।

ये प्रथा बन गई और ओलम्पिक तक पहुंच गई। 1912 ओलंपिक से पहले इन मेडल्स में सौ प्रतिशत शुद्ध सोना मिला हुआ होता था। 1912 में स्टॉकहोम समर ओलंपिक के बाद से ही ये परंपरा बंद हो गई थी।

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लेकिन अब इसमें सोने के साथ-साथ चांदी की भी मिलावट होने लगी है। अब सोने की पहचान करने के लिए ही नहीं बल्कि एक परम्परा के रूप में खिलाड़ी उसे अपने दांत से दबाते हैं।

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