पांडवो के सगे मामा ने लड़ी थी दुर्योधन की ओर से लड़ाई और युद्ध के समय दिखाई थी ये चालाकी
रामायण और महाभारत हिन्दुओं के प्रमुख धार्मिक ग्रंथ में से है। इन दोनों ही प्रसंगों में कई ऐसे वाकये हुए हैं जिनके बारे में आज भी लोग जानना चाहते हैं। महाभारत के ऐसे ही एक प्रसंग के बारे में हम आपको बताने जा रहे हैं। हम आपको बताएँगे कि कैसे पांडवों के सगे मामा शल्य ने दुर्योधन की ओर से लड़ाई की थी और इस दौरान एक चालाकी भी दिखाई थी। तो इसे एक पौराणिक कथा के माध्यम से जानते हैं।
पौराणिक कथा - रघुवंश के शल्य पांडवों के मामाश्री थे। कौरव भी उन्हें मामा मानते थे और उनका सम्मान किया करते थे। पांडु पत्नी माद्री के भाई अर्थात नकुल और सहदेव के सगे मामा शल्य के पास विशाल सेना थी। जैसे ही महाभारत के युद्ध की घोषणा हुई तो नकुल और सहदेव को इस बात का 100 प्रतिशत विश्वास था कि उनके मां श्री उनकी ओर से लड़ाई लड़ेंगे। एक दिन शल्य अपने भांजों से मिलने के लिए अपनी सेना सहित हस्तिनापुर के लिए निकले। बीच रास्ते में ठहरने के लिए उन्होंने जहाँ भी पड़ाव डाला वहां उन्हें अपनी सेना और खुद के लिए रहने, ठहरने और खाने की अच्छी व्यवस्था मिली। यह व्यवस्था देखकर वे प्रसन्न हुए और मन ही मन वे युधिष्ठिर को धन्यवाद देने लगे।
हस्तिनापुर के पास पहुंचने पर उन्होंने वृहद विश्राम स्थल देखे और सेना के लिए भोजन की उत्तम व्यवस्था देखी। फिर उन्होंने पूछा कि युधिष्ठिर के किन कर्मचारियों ने इतनी अच्छी व्यवस्था की है? मैं उन्हें इनाम देना चाहता हूँ।, इसके बाद दुर्योधन सामने आए और बोले कि मामाश्री यह सभी व्यवस्था मैंने आपके लिए ही की है, जिस से आपको किसी तरह की कोई समस्या ना हो। 'यह सुनकर शल्य के मन में दुर्योधन के लिए काफी प्यार उमड़ आया और उन्होंने भावना में बहकर कहा, 'मांगों आज तुम मुझसे कुछ भी मांग सकते तो'... यह सुनकर दुर्योधन के कहा, 'आप सेना के साथ युद्ध में मेरा साथ दें और मेरी सेना का संचालन भी करें' यह सुनकर शल्य कुछ देर के लिए चुप रह गए। हालाकिं वे वचन से बंधे हुए थे फिर भी उन्हें दुर्योधन का यह वचन मानने के लिए हामी भर दी।
लेकिन शर्त यह रखी कि युद्ध में पूरा साथ दूंगा, जो बोलोगे वह करूंगा, परन्तु मेरी जुबान पर मेरा ही अधिकार होगा। दुर्योधन को उनके इन वचनों पर कोई बड़ी बात नजर नहीं आई और उन्होंने हाँ कह दिया। शल्य बहुत बड़े रथी थे उन्हें कर्ण का सारथी बनाया गया था। वे अपनी जुबान से कर्ण को हतोत्साहित करते रहते थे। हर दिन युद्ध समाप्त होने के बाद वे जब शिविर लौटते थे तो भी कौरवों को हतोत्साहित करने का कार्य करते रहते थे।