शराब की बोतल में बिकने वाला पाकिस्तानी शरबत ‘रूह-अफजा’ कैसे बना भारतीय लोगों की पहली पसंद..!
कुछ बैंड्स ऐसे हैं जो सालों से हमारे बीच मौजूद है और आज भी लोगों द्वारा उन्हें बेहद ही पसंद किया जाता है। उनमे से एक है सबका फेवरेट शर्बत रूह अफ़ज़ा। रूह अफजा का सेवन हम सभी करते हैं। लेकिन इसके इतिहास के बारे में आपको जानकारी नहीं होगी। रूह अफ़ज़ा वो हिंदुस्तानी ब्रांड है जिसने बंटवारे का मंज़र भी देखा है और आजादी का जश्न भी मनाया है।
मेहमानों का स्वागत हो या फिर त्योहार की ख़ुशियां, रूह-अफ़ज़ा शरबत के बिना अधूरी सी लगती हैं। आज हम आपको इसी के बारे में जानकारी देने जा रहे हैं।
एक नज़र रूह अफ़ज़ा के इतिहास पर
1907 के आस-पास हकीम अब्दुल मजीद नामक यूनानी चिकित्सक ने रूह अफ़ज़ा का आविष्कार किया। उन्होंने दिल्ली की गलियों में हमदर्द की एक छोटी सी दुकान खोली। हमदर्द का मतलब था हर दर्द में हमारा साथ बनने वाला। रूह अफ़ज़ा का आविष्कार उन्होंने एक पेय पर्दाथ के रूप में नहीं, बल्कि दवा के रूप में किया था।
रूह अफ़ज़ा की ब्रांडिग अच्छी थी इसलिए लोग इसकी तरफ आकर्षित हुए और इसका सेवन करना शुरू किया फिर धीरे धीरे ये सबका फेवरेट बन गया। कमाल की बात ये है कि पहले रूह अफ़ज़ा को शराब की बोतल में पैक करके बेचा जाता था। फिर मिर्जा नूर अहमद नामक कलाकार ने इसका लेबल डिज़ाइन किया। 40 साल तक रूह अफ़ज़ा ने सफ़लता की ऊंचाईयों को छू लिया था। सिर्फ़ हिंदुस्तान ही नहीं, रूह अफ़ज़ा ने अफ़गानिस्तान में लोगों का दिल छू लिया था।
देश के विभाजन के दौर में रूह अफ़ज़ा पर विपरीत प्रभाव पड़ा। 1922 में अब्दुल मजीद का निधन हो गया और उसके बाद उनके 14 वर्षीय बेटे ने सारा कार्यभार संभाला। बंटवारे ने न सिर्फ़ हमदर्द पर असर डाला, बल्कि उनका परिवार भी बिखर गया। बंटवारे के मंज़र में अब्दुल और उनके भाई सैद अलग-अलग हो गये। उन्होंने पाकिस्तान जाकर नये सिरे से हमदर्द की शुरुआत की।
इसके बाद 1953 में Waqf नामक राष्ट्रीय कल्याण संगठन बनाया गया। पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश में रूह अफ़ज़ा को हमदर्द Laboratories के नाम से बेचा जा रहा है।