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दोस्तों, आपको बता दें कि मैसूर के शासक टीपू सुल्तान को भारत के अधिकांश लोग दुनिया का पहला मिसाइल मैन मानते हैं। टीपू सुल्तान की मौत के बाद रॉकेटों की मारक क्षमता और उसके डिजाइन से हैरान-परेशान अंग्रेज कुछ रॉकेट इंग्लैंड ले गए। टीपू के उन्हीं रॉकेटों ने विश्व को मिसाइल बनाने का रास्ता दिखाया है। इस स्टोरी में हम आपको टीपू सुल्तान के रॉकेटों से जुड़ी कुछ खास बातें बताने जा रहे हैं।

- महज 15 बरस की उम्र में ही युद्ध में भाग लेने की वजह से टीपू को मैसूर का शेर कहा जाने लगा। टीपू सुल्तान के पिता का नाम हैदर अली था।

- भारतीय उपमहाद्वीप में अंग्रेजों को सबसे कड़ी चुनौती टीपू सुल्तान से ही मिली। टीपू सुल्तान गुरिल्ला युद्ध में माहिर थे।

- टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों विरूद्ध होने वाले युद्धों में रॉकेट का इस्तेमाल किया था। टीपू ने बारूद भरने के लिए बांस की लकड़ियों की जगह लोहे की नली में बारूद भरा। लोहे की नली में ज्यादा बारूद भरा जा सकता था।

- रॉकेट की मारक क्षमता दोगुनी करने के लिए टीपू ने इसमें तलवार लगाई।

- टीपू सुल्तान के रॉकेटों की मारक क्षमता दो किलोमीटर तक थी, क्योंकि लोहे की नली में बारूद भरने का परिणाम यह हुआ कि अब रॉकेट दूर तक मार कर सकते थे। उस वक्त दुनिया में कहीं भी ऐसे अन्य रॉकेट नहीं थे। रॉकेटों का ऐसा सैन्य इस्तेमाल कोई और सोच तक नहीं पाया था।

- 1780 में दूसरे आंग्ल-मैसूर युद्ध में टीपू के रॉकेटों ने कमाल कर दिखाया और अंग्रेजों को परास्त कर दिया। दरअसल अंग्रेजी सेना का ऐसे हथियार से पहली बार सामना हुआ था।

- टीपू सुल्तान की सेना में दो दर्जन से ज्यादा ब्रिगेड थीं। हरेक ब्रिगेड में रॉकेट चलाने वाले प्रशिक्षित सैनिक शामिल थे। माना जाता है कि टीपू ने 5000 सैनिक तो सिर्फ रॉकेट से हमला करने के लिए नियुक्त कर रखे थे।

- टीपू सुल्तान की मौत के अंग्रेजों के हाथ 700 से ज्यादा रॉकेट और रॉकेटों की 900 उपप्रणालियां हाथ लगीं।

- अंग्रेज जिन रॉकेटों को इंग्लैंड ले गए, वहां उन पर काफी काम हुआ। बाद में पश्चिमी देशों ने टीपू की रॉकेट प्रणाली के आधार पर मिसाइल विकसित की।

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