कांग्रेस आलाकमान ने 23 जनवरी, 2019 को अपनी आखिरी बाजी चलते हुए प्रियंका गांधी को पार्टी का महासचिव बनाया। सबसे बड़ी बात की, प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तर प्रदेश संभालने की जिम्मेदारी दी गई, जिस इलाके से खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य आते हैं। ऐसे में आप सोच सकते हैं कि 26 सीटों की जिम्मेदारी लेने वाली प्रियंका गांधी के लिए यह सियासी राह इतनी आसान नहीं होगी। खैर जो भी हो, प्रियंका गांधी को इस इलाके में कितनी सफलता मिलती है, यह अलग की बात है। लेकिन इससे पहले प्रियंका को इन पांच चुनौतियों से निपटना होगा, तभी वह अपने राजनीतिक करियर में कुछ चमत्कार दिखा पाएंगी।

1- परिवारवाद
प्रियंका गांधी के महासचिव बनते ही भाजपा को सियासी हमला करने का एक और मौका मिल गया है। वंशवाद के विरोधियों को बिना कुछ किए एक नया हथियार मिल गया है। पहले जवाहरलाल नेहरू, फिर इंदिरा गांधी, बेटे संजय और राजीव गांधी। उसके बाद सोनिया गांधी और फिर आए राहुल गांधी, अब नई नियुक्ति हुई है प्रियंका गांधी। अब विरोधी सीधे पांच पीढ़ियों पर सवाल उठाएंगे और उनकी निशाना होंगी प्रियंका गांधी। केवल अमेठी और रायबरेली में चुनाव प्रचार करने वाली प्रियंका के पास अब 26 लोकसभा सीटों की जिम्मेदारी है। जहां तक राजनीतिक अनुभव का सवाल है, प्रियंका गांधी सियासी दाव पेंच से कितना वाकिफ हैं यह वक्त बताएगा।

2- राबर्ट वाड्रा के साथ जुड़ा है जमीन घोटाले का जिन्न
चुनाव प्रचार के दौरान प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वाड्रा का जिक्र विरोधी जरूर करेंगे। बीकानेर और गुड़गांव की ज़मीन के सौदों का जिक्र भी होगा। विरोधी उन एफआईआर का भी जिक्र करने से बाज नहीं आएंगे जिसमें खेती की ज़मीन का लैंड यूज चेंज कर देने के आरोप लगे हैं। जब राहुल और प्रियंका किसानों के हित की बात करेंगे तब पीएम मोदी और भाजपा के नेता उन्हें किसान विरोधी घोषित करने की भरपूर कोशिश करेंगे। इस प्रकार सियासी विरोधियों के सामने प्रियंका गांधी को पति रॉबर्ट वाड्रा पर उठने वाले सवालों का जवाब देना होगा।

3- डबल पावर सेंटर
कांग्रेस में अब दो-दो पावर सेंटर बनने की पूरी संभावना बनती दिख रही है। जैसा कि हालिया विधानसभा चुनाव में देखने को मिला है। कांग्रेस के जो ​प्रमुख नेता राहुल गांधी से नाराज हैं, वह प्रियंका गांधी के करीब आ सकते हैं। कांग्रेस सूत्रों के मुताबिक, हालिया विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी से ज्यादा प्रियंका की चली। खास तौर से राजस्थान में जब राहुल गांधी ने सीएम पद के लिए सचिन पायलट का नाम तय कर दिया था। लेकिन प्रियंका गांधी की वजह से अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बने। संभव है, ऐसे ही कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं को सोनिया की जगह प्रियंका में नया पावर सेंटर दिख जाए।

4- पूर्वी उत्तर प्रदेश में जातिगत राजनीति
यह ठीक है कि प्रियंका गांधी बढ़िया हिंदी बोल लेती हैं, मिलनसार हैं तथा राहुल के मुकाबले उनकी भाषण शैली भी अच्छी है। लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश का क्या? यहां तो जातिगत राजनीति चलती है। 2012 में कांग्रेस के पास यूपी में कुल 28 सीटें थी, जो 2017 में घटकर 7 रह गईं।

ऐसे में इस बार जब सपा-बसपा गठबंधन हुआ है, इन इलाकों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रेलवे राज्य मंत्री मनोज सिन्हा, बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र पांडेय, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का संसदीय क्षेत्र है। इन सभी क्षेत्रों में ब्राह्मण और ठाकुर जाति की निर्णायक भूमिका है। अत: प्रियंका के समक्ष अब मुस्लिम मतदाताओं को अपनी तरफ खींचने की सबसे बड़ी चुनौती होगी। ध्यान देने वाली बात यह है कि प्रियंका के रास्ते में दो क्षत्रप बसपा सुप्रीमो मायावती और सपा प्रमुख अखिलेश यादव भी खड़े होंगे, इनसे भी निपटना इतना आसान नहीं होगा।

5- यूपी में कांग्रेस को खुद के पैरों पर खड़ा करने की जिम्मेदारी
विधानसभा हो या लोकसभा इन सभी चुनावी बिसातों में कांग्रेस यूपी में हाशिए पर है। 1989 से यूपी में कांग्रेस का दाव उल्टा पड़ना शुरू हुआ जो आज तक जारी है। बता दें कि 1989 में राजीव गांधी ने अयोध्या का ताला खुलवाया, इतना ही नहीं अयोध्या से ही चुनाव प्रचार की शुरूआत की। लेकिन राजीव गांधी को सियासी मात खानी पड़ी। भाजपा 2 सीटों से उठकर 88 सीटों तक पहुंच गई। विधानसभा में कांग्रेस 100 से भी नीचे आ गई। 1996 में बसपा से गठबंधन के बाद यूपी की कुल 425 सीटों में कांग्रेस के खाते में केवल 125 सीटें आई। इसके बाद तो यूपी में कांग्रेस का सत्ता से दावा ही खत्म हो गया। 2017 में राहुल ने अखिलेश से गठजोड़ किया था, मिली सिर्फ 7 सीटें। देखना यह होगा कि इन हालातों में प्रियंका गांधी यूपी में जमीन पर लेट चुकी कांग्रेस को कितना खड़ा कर पाती हैं।

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