आपको जानकारी के लिए बता दें कि लोकसभा चुनाव 2019 के लिए बिहार में महागठबंधन के बीच सीटों का बंटवारा हो चुका है। बिहार में महागठबंधन के तहत कांग्रेस को 9 सीटें, राष्ट्रीय जनता दल को 20 सीटें, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी को 5 सीटें, विकासशील इंसान पार्टी को 3 सीटें तथा हिंदुस्तान आवाम मोर्चा को 3 सीटें मिली है। जबकि राजद ने अपने कोटे से सीपीआई (माले) को एक सीट देने की बात कही है।

पिछले कुछ दिनों से इस बात की चर्चा जोरों पर थी कि महागठबंधन में कन्हैया कुमार को शामिल किया जाएगा और बेगूसराय से उन्हें चुनाव मैदान में उतारा जाएगा। लेकिन महागठबंधन में कन्हैया कुमार को शामिल नहीं किया गया। अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर इसके पीछे क्या वजह हो सकती है?

बिहार की राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र तिवारी के मुताबिक, बिहार में महागठबंधन की अगुवाई तेजस्वी यादव कर रहे हैं और वो जाति का गणित लेकर चल रहे है। दूसरी वजह ये भी हो सकती है कि सत्ता पक्ष ने कन्हैया कुमार की छवि देशद्रोह की बनाई है और उन पर मुकदमा पर चलाया जा चुका है। ऐसे में महागठबंधन आज के इस राष्ट्रवादी माहौल के खिलाफ नहीं जाना चाहता है।

राजेंद्र तिवारी का मानना है कि कन्हैया कुमार की आवाज मजबूत है और वह आम आदमी को बहुत ही आम भाषा में समझाने में सक्षम हैं। ऐसे में तेजस्वी थोड़ा सेफ खेलना चाहते हैं। इस प्रकार महागठबंधन में यदि कन्हैया कुमार को नहीं शामिल किया गया है, तो ये दोनों मजबूरियां रही होंगी।

पटना के वरिष्ठ पत्रकार अजय कुमार दूसरा ही कारण बताते हैं। अजय कुमार का कहना है कि कन्हैया की पार्टी सीपीआई के पास दूसरे लोकसभा क्षेत्र में वो आधार नहीं है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि यदि तेजस्वी कन्हैया की पार्टी को टिकट देते तो क्या दूसरी अन्य सीटों पर भी इसका फायदा पहुंचता?

अजय कुमार यह भी कहते हैं कि लोकसभा चुनाव 2014 में बेगूसराय में राजद के तनवीर हसन ने बेहतरीन प्रदर्शन किया था। इसलिए राजद यादव-मुस्लिम के सशक्त समीकरण पर किसी तरह का तोहमत नहीं लेना चाहती है। बता दें कि लोकसभा चुनाव 2014 में भाजपा के भोला सिंह को क़रीब 4.28 लाख वोट मिले थे, वहीं राजद के तनवीर हसन को 3.70 लाख वोट मिले थे। दोनों में महज 58 हजार वोटों का अंतर था। जबकि सीपीआई के राजेंद्र प्रसाद सिंह को करीब 1.92 हजार वोट ही मिले थे।

एक सवाल यह भी उठ रहा है कि महागठबंधन में कन्हैया कुमार को शामिल नहीं किए जाने के पीछे कहीं तेजस्वी के मन में असुरक्षा की भावना तो नहीं है?

इस बारे में वरिष्ठ पत्रकार अजय कुमार का कहना है कि जिस तरह से पप्पू यादव राजद के अंदर पैठ बना रहे थे, उस वक्त पार्टी ने उनको दरकिनार कर दिया था। संभव है कन्हैया के आने के बाद मामला कन्हैया बनाम तेजस्वी का भी बन सकता था। राजनीति में यह भी देखा जाता है कि आप किसको साथ लेकर चल रहे हैं और आने वाले समय उसका क्या परिणाम होगा।

ऐसे में राजद के मन में भी यह बात अवश्य होगी कि कन्हैया कुमार की छवि जिस तरह से राष्ट्रीय स्तर पर सशक्त प्रतिरोध की बनी है, उसके सामने तेजस्वी का कद कहीं छोटा न पड़ जाए। इसके विपरीत राजेंद्र तिवारी कहना है कि इस तरह की असुरक्षा की भावना तेजस्वी के मन में रही होगी, ऐसा नहीं लगता है। क्योंकि कन्हैया कुमार की पार्टी सीपीआई का आधार बिहार में बहुत छोटा है जबकि राजद एक बड़ी पार्टी है।

राजेंद्र तिवारी यह भी कहते हैं कि दरअसल महागठबंधन यह नहीं चाहता है कि भाजपा या एनडीए कन्हैया कुमार के ख़िलाफ़ कुछ ऐसे मुद्दे खड़े करें जिसका जवाब अभी के राष्ट्रवादी माहौल में देना पेरशानी का कारण बने।

खैर जो भी हो, यह सब सियासी रणनीति​ का अंग हो सकता है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि कन्हैया कुमार को शामिल न करके महागठबंधन ने एक मज़बूत आवाज़ को खोया है। कन्हैया कुमार नरेंद्र मोदी की नीतियों पर सवाल उठाते रहें हैं और उनकी जवाबी शैली भी लोगों को आकर्षित करती है। कन्हैया कुमार यदि महागठंबधन के साथ होते तो स्थितियां बहुत अलग होतीं।

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