आज से करीब 800 साल पहले एक दरवेश अल्लाह का पैगाम लिए ईरान से हिन्दुस्तान के अजमेर पहुंचा। तब से लेकर आज तक 8 सदी से ज्यादा वक्त बीत गया लेकिन उनकी चौखट पर राजा हो रंक, हिन्दू हो या मुसलमान सभी बड़ी श्रद्धा के साथ अपना सिर झुकाते हैं।

महान सूफी संत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह का बुलंद दरवाजा इस बात का गवाह है कि मुहम्मद-बिन-तुगलक, अल्लाउद्दीन खिलजी और मुगल अकबर से लेकर हर बड़े हुक्मरान ने यहां पूरे अदब के साथ अपना सिर झुकाया। हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की अजमेर स्थित दरगाह से हर मजहब के लोगों को आपसी प्रेम का संदेश मिला है।

प्रख्यात अंग्रेज लेखक कर्नल टाड अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि मैंने हिन्दुस्तान में एक कब्र को राज करते देखा है। पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने भी ख्वाजा के दरबार में मत्था टेका है। पं. नेहरू ने ही ख्वाजा साहब के एक खादिम परिवार को अकीदत से महाराज नाम दिया था।

एक अनुमान के मुताबिक प्रतिदिन 20 से 22 हजार जायरीन अजमेर आते हैं, जिसमें से गैर मुस्लिमों की संख्या 60 प्रतिशत से ज्यादा होती है। यानी ख्वाजा के दर पर माथा टेकने वालों में मुसलमानों से ज्यादा हिन्दू होते हैं।

ख्वाजा गरीब नवाज उर्फ ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने अपने सभी उत्तराधिकारियों को अपना दर सभी मजहबों के लिए खोलने और सभी के लिए दुआ करने की हिदायत दी। यही वजह है कि आज ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के उत्तराधिकारी महरौली, दिल्ली स्थित ख्वाजा कुतुबुद्दीन चिश्ती की दरगाह हो या हजरत निजामुद्दीन चिश्ती की दरगाह, इन सभी सूफियों की दरगाह में सभी धर्मों के मानने वालों का तांता लगा रहता है।

ईरान के संजर नगर से चलकर हिन्दुस्तान की सरजमीं पर धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए पहुंचे सूफी-संत हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने जब 11वीं सदी के अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के शहर अजमेर को अपना उपासना स्थल और कर्मभूमि बनाई तो उन्होंने महसूस किया कि यहां एकतरफा धर्म नहीं चल सकता। उन्होंने महसूस किया कि इस्लामी सिद्धांतों को यहां की धार्मिक मान्यताओं से जोड़कर चलना होगा। इस दूरदर्शी नजर के चलते महान सूफी ख्वाजा ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने सांप्रदायिक एकता, भाईचारगी और आपसी प्रेम का पाठ पढ़ाने का मिशन लेकर सूफी परंपरा आरंभ की।

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