पूरे देश में हर्षोल्लास के साथ ईद-उल-अजहा मनाई जा रही है। इस दिन मस्जिदों और ईदगाहों में नमाज अदा की जा रही है। इस त्योहार को ईद-उल-अज़हा और ईद-इल-जुहा भी कहा जाता है। इस त्योहार पर मुख्य रूप से अल्लाह के नाम की कुर्बानी दी जाती है, बकरीद के दिन मुस्लिमों के घर बकरे की बलि देकर उसे हिस्सों में बाटकर दान करने की प्रथा है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस्लाम धर्म में क्यों बकरों की बलि दी जाती है। तो चलिए आज जानते है इस प्रथा के बारे में ,,


ऐसा माना जाता है कि इस्लाम धर्म के प्रमुख पैगंबरों में से एक हजरत इब्राहिम से कुर्बानी देने की यह परंपरा शुरू हुई, दरअसल हजरत इब्राहिम को कोई संतान नहीं था. अल्लाह से काफी मन्नतें मांगने के बाद उनके घर एक बेटा पैदा हुआ. हजरत इब्राहिम ने उस बच्चे का नाम स्माइल रखा। वह अपने बेटे से बहुत प्यार करते थे. एक रात अल्लाह हजरत इब्राहिम के सपने में आए और उनसे सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी मांगी। इसके बाद हजरत इब्राहिम ने अपने अजीज़ ऊंट को कुर्बान कर दिया। अल्लाह फिर सपने में आए और कहा कि सबसे प्यारी चीज मैंने कही थी. हजरत इब्राहिम ने एक-एक कर सभी जानवर कुर्बान कर दिए. इसके बाद भी उन्हें सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी देने को लेकर अल्लाह ख़्वाब में आकर कहते रहे।


इसके बाद हजरत इब्राहिम जिनको सबसे ज्यादा अपने बेटे इस्माइल से प्यार थे, उसकी कुर्बानी देने को अल्लाह के लिए तैयारी हो गए. हजरत इब्राहिम जब अपने बेटे को लेकर कुर्बानी देने जा रहे थे तभी रास्ते में शैतान मिला और उसने कहा कि वह इस उम्र में क्यों अपने बेटे की कुर्बानी दे रहे हैं। उसके मरने के बाद बुढ़ापे में कौन उनकी देखभाल करेगा। हज़रत इब्राहिम ये बात सुनकर सोच में पड़ गए और उनका कुर्बानी देने का मन हटने लगा। लेकिन कुछ देर बाद वह संभले और कुर्बानी के लिए तैयार हो गए। हजरत इब्राहिम को लगा कि कुर्बानी देते समय उनकी भावनाएं आड़े आ सकती हैं, इसलिए उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली।


जब उन्होंने कुर्बानी देने के बाद आंखें खोली तो उनका बेटा बिल्कुल सही सलामत था और कुर्बानी एक बकरे की हुई थी। माना जाता है कि अल्लाह ने हजरत इब्राहिम की ईमानदारी और निष्ठा से खुश होकर उनके बेटे की जान बख्स दी और बकरे की कुर्बानी ली। तभी इस्लाम धर्म में ये परम्परा चलती आ रही है।

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