माना जाता है कि शिव सब देवताओं से सर्वोप्रिय है। शिव और शक्ति के प्रतीक शिवलिंग का अर्थ हमें पुरुष और प्रकृति के बीच सामंजस्य स्थापित होने से सृष्टि संतुलित रूप से चल पाती है। कहा जाता है कि शिव पुरुष के प्रतीक है और शक्‍ति देवी पार्वती प्रकृति का रूप है।
शिवलिंग के रूप में भगवान शिव बताते हैं कि पुरुष और प्रकृति के बीच यदि संतुलन नहीं होगा तो सृष्टि का कोई भी कार्य संतुलित रूप से संपन्न नहीं हो सकता है। जब शिव अपना भिक्षु रूप, तो शक्ति अपना भैरवी रूप त्याग कर समान्‍य घरेलू रूप धारण करते है तो पार्वती , ललिता और शिव, शंकर बन जाते है। इस संबंध में न कोई विजेता है और न कोई विजित है, दोनों के एक-दूसरे पूरक है। यहीं उनका संपूर्ण अधिकार है, जिसे प्रेम कहा जाता है।

शिव - पार्वती के शक्‍ति के संयुक्‍त होने को लेकर कथाए बहुत सारी है। ग्रंथो के अनुसार शिव-पार्वती विवाह के बाद उनके भक्‍त भृंगी ने उनके चारों ओर परिक्रमा करने की इच्छा व्यक्त की। इस पर शिव ने भृंगी से कहा कि आपको शक्ति की भी परिक्रमा करनी होगी, क्योंकि उनके बिना मैं अधूरा हूँ।
भृंगी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। वे देव और देवी के बीच प्रवेश करने का प्रयत्न करते है। इस पर देवी, शिव की जंघा पर बैठ जाती है, जिससे वे शिव की परिक्रमा नहीं लगा सकें। लेकिन भृंगी ने भौंरे का रूप धारण कर उन दोनों की गर्दन के बीच से गुजर कर शिव की परिक्रमा पूरी करने की कोशिश करते है। तब शिव अपना शरीर शक्ति के साथ जोड़ लेते है और वे माता पार्वती के अंदर समा जाते है। वे दोनों अर्द्धनारीश्वर बन जाते है। अब भृंगी दोनों के बीच से नहीं गुजर सकते थे।

शिव ने शक्ति को अपने शरीर का आधा भाग बनाकर स्‍पष्‍ट किया कि वास्तव में स्त्री की शक्ति को स्वीकार किए बिना पुरुष पूर्ण नहीं हो सकता और शिव की भी प्राप्ति नहीं हो सकती है। दोनों ही एक - दूसरे के बिना अधूरे माने जाते है। इसलिए आज भी हमारे शास्त्रों के अनुसार पुरुष और स्त्री को एक - दूसरे के बिना अधूरा माना जाता है।

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