भारत के इस क्षत्रिय महायोद्धा के गुरु थे संत रैदास, दोनों ने हिन्दू धर्म को मिट जाने से बचाया था!
आपको बता दें कि चर्मकार का अर्थ चमड़े का कार्य करने वाला होता है। कालांतर में चर्म कर्म का अर्थ चमार जाति में परिवर्तित हो गया। जी हां, हम आपको देश के ऐसे संत के बारे में बताने जा रहें जो जूते-चप्पलों की सिलाई कर अपना जीविका चलाते थे। इस संत ने राजाश्रय से नहीं अपने कर्म और अध्यात्मिक उपलब्धियों से राजपूताना के सिसोदिया राजवंश में पूजनीय बन गया। संत रैदास जी को अनुमान हो गया था कि मुसलमान हिन्दुओं को मार-पीटकर अब धर्म परिवर्तन कराने वाले हैं। वहीं दूसरी तरफ महाराणा सांगा भी हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए युद्ध लड़ रहे थे। महाराणा सांगा ने कहा था कि गुरु से सभी उसकी जात नहीं पूछी जाती है बल्कि गुरु से बस ज्ञान लिया जाता है। यही एक कारण था आगे चलकर संत रैदास और महाराणा सांगा दोनों गुरु-शिष्य बन गए।
यह घटना उन दिनों की है, जब अफगान शासक सिकंदर लोदी हिंदूओं को प्रताड़ित कर उन्हें मुसलमान बना रहा था। इतना ही नहीं युद्धबंदी हिंदूओं से मुसलमान मैला साफ करवा रहे थे। इस तरह मुसलमान शासकों ने इन लोगों को नीच बोलकर हिंदू धर्म से बाहर का रास्ता दिखा दिया। अब हिंदू धर्म से निष्कासित लोगों के पास केवल एक ही रास्ता था कि वो मुसलमान बन जाएं। ये अछूत हिंदू कहीं मुसलमान न बन जाएं, इसके लिए संत रैदास ने अपना एक अलग संप्रदाय बना लिया था। जिसे रैदासी संप्रदाय के नाम से जाना गया। सिकंदर लोदी ने संत रैदास को इसलिए जेल में डलवा दिया था क्योंकि वह हिन्दू धर्म को मिटने से बचा रहे थे।सिकंदर लोदी ने संत रैदास को मुसलमान बनने के लिए पैसों का भी लालच दिया लेकिन संत रैदास ने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए जेल जाना ही उचित समझा।
दूसरी तरफ महाराणा सांगा का पूरा ही जीवन युद्धभूमि में बीता था। राणा सांगा ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी को करारी शिकस्त दी थी। महाराणा सांगा इस बात को अच्छी तरह से समझ चुके थे कि मुस्लिम शासक धर्म परिवर्तन के कार्य में जुटे हुए हैं। इसलिए महाराणा सांगा को संत रैदास जी के संघर्ष की खबर लगी और वे उनके पास पंहुच गए। महाराणा सांगा ने संत रैदास को अपना गुरू स्वीकार कर लिया। इतिहास के मुताबिक, महाराणा सांगा अपने गुरू संत रैदास को मेवाड़ ले जाना चाहता था। शुरू में संत रैदास जी ने महाराणा सांगा के साथ मेवाड़ चलने से मना कर दिया। लेकिन जब महाराणा सांगा ने अपना राजपाट छोड़ने की बात कही तो वह उनके साथ मेवाड़ चले गए।
जब तक महाराणा सांगा जीवित रहे तब तक संत रैदास जी अपने शिष्य के साथ मेवाड़ ही रहे थे। इस प्रकार गुरु और शिष्य ने हिन्दू धर्म के लिए बड़ी-बड़ी लड़ाई लड़ी। दुख इस बात का है कि आज का भारत संत रैदास और महाराणा सांगा के असली इतिहास को भूल चुका है।