मानसून आते ही बदल जाता है यूपी का संगीत
इंटरनेट डेस्क। मानसून आते ही किसान ना केवल अपनी खेतीबारी में जुट जाते हैं, बल्कि घर की महिलाएं बारिश की फुहारों से रोमांचित होकर अपने मन के भावों को लोकगीतों के माध्यम से व्यक्त करती हैं। मानसून में हर किसी का मन भी रूमानियत से भर उठता है। मानसून भारत की समृद्धि का द्योतक तो है ही, साथ में यह इस देश की संस्कृति पर भी अपना पूरा प्रभाव डालता है।
मानसून के आते ही उत्तरी भारत के गांवों में महिलाएं कजली, टुनमुनियाँ, झूमर, बारहमासा और झूला गीत आदि गाने लगती हैं। यूपी के गावों में युवतियां और महिलाएं बाग बगीचों में झूले डालती हैं। झूला झूलते हुए युवतियां और महिलाएं बारिश की फुहारों के बीच कजरी गीत गाती हैं। हांलाकि मानसून में गाए जाने वाले इन लोक गीतों की पहचान जीवनशैली में आ रहे बदलाव के कारण मिटती जा रही है।
पावस काल में महिलाएं कजली गाती है। कजली के अन्य क्षेत्रीय भेद हैं जैसे बारहमासा, झूला गीत, झूमर और टुनमुनियां। इन गीतों में महिलाएं अपने भाई के प्रति विशुद्ध प्रेम की भावनाएं व्यक्त करती है। कजली गीत महिलाएं विशेषरूप से सावन के महीने में बादलों के आसमान में घुमड़ते रहने के दौरान गाया जाता है। काले बादलों के बीच गाए जाने के चलते इस गीत को कजली कहा जाता है।
कजली गीत विशेषकर यूपी के पूर्वी जिलों में गाया जाता है। गीत कजरी की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं :-
नन्हीं नन्हीं बुंदिया परई मोरे अंगना
ना आए सजनवा हमार रे
पापी पपीहा पुकारई पिऊ- पिऊ
जारै जियरवा हमार रे...।
यूपी के क्षेत्रीय लोक गीतों में विजयमल, सोरठी, बंजरवा, लोरिकी तथा नयकवा आदि शामिल हैं। इसके अलावा लचारियां, लोरिया और बिदेसिया भोजपुरी के लोग गीत हैं, जो बारिश के महीनों में गाए जाते हैं। विशेषकर यूपी के पूर्वी हिंदी भाषी क्षेत्रों में सावन भादों के महीने में केवल कजली गीत के लिए बेटियों को पीहर बुला लिया जाता है।