Olympic gold medal: ओलंपिक का स्वर्ण पदक पूरी तरह सोने का बना होता है..या फिर ? जानें क्या है सच्चाई
इस बार टोक्यो ओलंपिक में पदक जीतने वाले खिलाड़ियों को कोरोना वायरस के संक्रमण को फैलने से बचाए रखने के लिए खुद ही अपने गले में पदक डालने होंगे. खेलों की तरह ओलंपिक पदकों ने भी लंबा सफर तय किया है. आइए जानते हैं ओलंपिक पदकों के बारे में, जिसे जीतना हर खिलाड़ी का सपना होता ह
बात करे प्राचीन ओलंपिक खेलों के दौरान विजेता खिलाड़ियों को ‘कोटिनोस’ या जैतून के फूलों का हार दिया जाता था, जिसे यूनान में पवित्र पुरस्कार माना जाता था और यह सर्वोच्च सम्मान का सूचक था. यूनान की खो चुकी परंपरा ओलंपिक खेलों ने 1896 में एथेंस में पुन: जन्म लिया. पुनर्जन्म के साथ पुरानी रीतियों की जगह नई रीतियों ने ली और पदक देने की परंपरा शुरू हुई. विजेताओं को रजत, जबकि उपविजेता को तांबे या कांसे का पदक दिया जाता था.
रोचक तथ्य है कि स्वर्ण पदक पूरी तरह सोने का नहीं बना होता. स्टॉकहोम खेल 1912 में आखिरी बार पूरी तरह सोने के बने तमगे दिए गए. अब पदकों पर सिर्फ सोने का पानी चढ़ाया जाता है. आईओसी के दिशा-निर्देशों के अनुसार स्वर्ण पदक में कम से कम 6 ग्राम सोना होना चाहिए. लेकिन असल में पदक में चांदी का बड़ा हिस्सा होता है.
बीजिंग ओलंपिक 2008 में पहली बार चीन ने ऐसा पदक पेश किया जो किसी धातु नहीं, बल्कि जेड से बना था. चीन की पारंपरिक संस्कृति में सम्मान और सदाचार के प्रतीक इस माणिक को प्रत्येक पदक के पिछली तरफ लगाया गया था.
पदकों में न सिर्फ 30 प्रतिशत पुनरावर्तित धातु का इस्तेमाल हुआ, बल्कि उससे जुड़े रिबन में भी 50 प्रतिशत पुनरावर्तित प्लास्टिक बोतलों का इस्तेमाल किया गया. सोना भी पारद मुक्त था. रियो के नक्शेकदम पर चलते हुए टोक्यो खेलों के आयोजकों ने भी पुनरावर्तित विद्युत धातुओं से पदक बनाने का फैसला किया.