दिसंबर 1600 में भारत में ब्रिटीश ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना के बाद से अग्रेंज भारत में अपने साम्राज्य का विस्तार करते ही चले जा रहे थे। लेकिन प्लासी युद्ध से पहले ही उन्हें एक ऐसी शर्मनाक हार मिली, जिससे ईस्ट इंडिया कंपनी का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया था।

टीपू सुल्तान और सिराजुद्दौला से जंग जीतने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने मुगलबादशाह औरंगजेब से भी दो-दो हाथ करने की हिमाकत कर डाली। लेकिन इस हार मे अंग्रेज घुटनों के बल रेंगने पर मजबूर हो गए थे। अंग्रेज़ों के दूतों को हाथ-पैर बांधकर दरबार में फ़र्श पर लेटकर मुग़ल बादशाह औरंगजेब के सामने माफ़ी मांगने पर मजबूर होना पड़ा था।

दोस्तोंं, आपको बता दें कि भारत के पश्चिमी तट पर सूरत, बम्बई और पूर्व में मद्रास और कलकत्ता से 20 मील दूर गंगा नदी पर स्थित बंदरगाह हुगली और क़ासिम बाज़ार के इलाकों में अंग्रेज अपने व्यावसायिक केंद्र स्थापित करके कारोबार शुरू कर चुके थे। भारत से रेशम, गुड़ का शीरा, कपड़ा और खनिज ले जाते थे। विशेषकर ब्रिटेन में ढाका के मलमल की बड़ी मांग थी।

उस दौर में अग्रेंज ही नहीं बल्कि पुर्तगाली और डच व्यापारी भी स्वतंत्र रूप से व्यापार कर रहे थे। लेकिन इन अंग्रेज व्यापारियों को मुगल सत्ता को कर देना पड़ता था। ऐसे में लंदन में ईस्ट इंडिया कंपनी चीफ जोज़ाया चाइल्ड ने कहा कि भारत में कंपनी के अधिकारी बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर में मुग़ल जहाज़ों का रास्ता काट दें तथा जो रास्ते में मिले उन्हें लूट लें।

फिर क्या था 1686 में चाइल्ड ने ब्रिटेन से सिपाहियों की दो पलटनें भी भारत भिजवा दीं और चटगांव पर कब्जा करने का आदेश दे दिया। इतिहास में इसे चाइल्ड का बचकानापन कहा जाए या फिर दिलेरी क्योंकि महज 308 सिपाहियों के भरोसे वह दुनिया की सबसे ताकतवर सल्तनत के ख़िलाफ़ जंग छेड़ने की हिमाकत कर रहा था।

दोस्तों आपको बता दें कि उन दिनों औरंगजेब की सल्तनत काबुल से ढाका तक और कश्मीर से पॉन्डिचेरी तक फैली हुई थी। इस मुगलबादशाह की फौजें दक्कन के सुल्तानों, अफ़ग़ानों और मराठाओं से युद्ध करके इतना अनुभवी हो चुकी थी कि उस वक्त वह दुनिया के किसी भी फौज से आसानी से टकरा सकती थीं। जब कंपनी के सैनिकों ने मुगल जहाजों को लूट लिया तब दिल्ली की 9 लाख की फ़ौज तो दूर बंगाल के सूबेदार शाइस्ता ख़ान के 40 हजार सैनिकों ने बम्बई तट की घेराबंदी कर ली। इस बारे में एलेक्ज़ेंडर हेमिल्टन आंखो देखा हाल वर्णित करता है। हेमिल्टन लिखता है कि सीदी 20 हज़ार सिपाही लेकर पहुंच गया और आते ही आधी रात को एक बड़ी तोप से गोले दाग़कर सलामी दी।

सीदी याक़ूत ने क़िले से बाहर कंपनी के इलाक़े लूटकर वहां मुग़लिया झंडे गाड़ दिए और जो अंग्रेज सिपाही मुक़ाबले के लिए गए उन्हें काट डाला। बाक़ियों के गले में ज़ंजीरें पहनाकर उन्हें बम्बई की गलियों से गुज़ारा गया। सीदी ने मुंबई में अंग्रेजों को घेराबंदी कर दी। इसके बाद खाने-पीने के आभाव तथा खराब मौसम के चलते एक के बाद एक करके अंग्रेज मरने लगे।

बंगाल के सूबेदार शाइस्ता ख़ान ने भी हुगली में ईस्ट इंडिया कंपनी के क़िले को घेर लिया और सभी रास्तों को बंद कर दिया। हांलाकि सुलह के चलते बंगाल की घेराबंदी तो खत्म हो गई लेकिन बंबई में यह घेराबंदी 15 महीनों तक चलता रही। अंत में हार मानकर अंग्रेंजों ने अपने दो दूत औरंगज़ेब के दरबार में भिजवा दिए ताकि वह हार की शर्तें तय कर सकें।

जॉर्ज वेल्डन और अबराम नॉआर नाम के दो दूत सितंबर 1690 को आख़िरी ताक़तवर मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब आलमगीर के दरबार तक पहुंचने में कामयाब हो गए। इन अंग्रेंजी दूतों के सिर झुके हुए तथा दोनों हाथ बंधे हुए थे, वह किसी शक्तिशाली देश के प्रतिनिधि नहीं बल्कि फकीर की तरह लग रहे थे।

बादशाह औरंगजेब ने उन्हें फर्श पर लेटने का आदेश दिया और डांटते हुए पूछा कि वह चाहते हैं? उन्होंने गिड़गिड़ाते हुए कहा कि मुंबई किले की घेराबंदी खत्म कर दी जाए और माफी दे दी जाए। इसके बाद औरंगजेब ने सीदी याक़ूत को बम्बई के क़िले की घेराबंदी ख़त्म करने आदेश दिया साथ में मुग़लों से जंग लड़ने का डेढ़ लाख रुपये हर्जाना अदा करने के अलावा जोज़ाया चाइल्ड को जितना जल्दी हो सके भारत छोड़ने के लिए कहा। अंग्रेजों ने यह तमाम शर्तें स्वीकार कर ली। करीब 14 महीनों बाद मुंबई के किले से अंग्रेजों को छुटकारा मिला।

हेमिल्टन ने लिखा कि जंग से पहले मुंबई की आबादी 700 से 800 के बीच थी, लेकिन मुगलिया जंग के बाद यहा केवल 60 से ज्यादा लोग नहीं बचे थे। हेमिल्टन की इस किताब को छपने में 40 साल लग गए। हांलाकि इस किताब को कुछ ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई। सवाल यह है कि मुगल बादशाह औरंगजेब यदि इन अंग्रेजों को माफ नहीं करता तो देश का इतिहास आज कुछ दूसरा होता।

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