आपको बता दें कि पाकिस्तान के परमाणु बम के जनक का नाम अब्दुल कादिर खान है। साल 1935 में भोपाल में जन्मे अब्दुल कादिर खान कट्टर राष्ट्रवाद से प्रेरित जासूसी के लिए भी जाने जाते हैं। बता दें कि भारत-पाकिस्तान के विभाजन के दौरान अब्दुल का परिवार पाकिस्तान नहीं जाना चाहता था, लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। अब्दुल कादिर खान को पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम में योगदान के अलावा लंबी दूरी की मिसाइलों के विकास के लिए भी जाना जाता है।

भोपाल में पैदा हुए अब्दुल के पिता एक स्कूल टीचर थे। 1947 में भारत विभाजन के दौरान जब लाखों मुसलमान पाकिस्तान जा रहे थे, तब अब्दुल का परिवार भोपाल में ही रूकना चाहता था। लेकिन 16 साल की उम्र में ही अब्दुल भोपाल छोड़कर पाकिस्तान चले गए क्योंकि उनके 4 भाई पहले ही पाकिस्तान जा चुके थे।

अब्दुल कादिर खान बचपन से ही मेधावी थे। उन्होंने कराची यूनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। इसके बाद ग्रेजुएशन करने के बाद अब्दुल ने छोटी-मोटी नौकरियां और कुछ साल बाद जर्मनी में मास्टर डिग्री ली। इसके बाद मेटालर्जिकल इंजीनियरिंग में पीएचडी शुरू की। इसी बीच अब्दुल ने डच-साउथ अफ्रीकी मूल की एक लड़की से शादी की और बेल्जियम में पढ़ाई पूरी की।

इसके बाद अब्दुल कादिर खान अपनी पत्नी हेनी के साथ एम्सटरडैम चले गए और वहां यूरोपियन यूरेनियम एनरिचमेंट सेंट्रीफ्यूज कॉरपोरेशन में काम करने लगे। 1971 के बांग्लादेश युद्ध में पाकिस्तान की हार के बाद पूर्वी पाकिस्तान को अलग कर बांग्लादेश बना। तब पाकिस्तान एक कड़वा घूंट पीकर रह गया। 1974 में जब भारत ने परमाणु परीक्षण किया तब पाकिस्तान इसे चुनौती के रूप में देखने लगा, अब उसे एक ऐसे शख्स की तलाश थी, जो पाकिस्तान के लिए परमाणु बम बना सके।

यह तलाश अब्दुल कादिर खान पर जाकर खत्म हुई। अब्दुल कादिर खान भी एम्सटरडैम से पाकिस्तान की हालत पर नजर बनाए हुए थे। जब अब्दुल ने 16 दिसंबर 1971 में ढाका में पाकिस्तानी सेना को भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण करते हुए देखा तो उसने ठान लिया कि वह अब दोबारा ऐसा नहीं होने देंगे। ऐसे में अब्दुल कादिर ने खुद ही जुल्फिकार अली भुट्टो के सामने अपनी पेशकश रख दी जिसे भुटटो ने स्वीकार कर लिया।

इसके बाद अब्दुल कादिर खान अपने मिशन में लग गए। अब्दुल कादिर विभाजन के दिनों में कहा करते थे कि उन लोगों को हर कोई लात मारता रहता है जिनका अपना कोई देश नहीं होता। भारत से जुड़ीं अतीत की कड़वी यादें भी उन्हें एक पक्का देशभक्त बनाती थीं। अब्दुल के पिता अध्यापक, दादा और परदादा सैन्य अधिकारी थे।

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