मध्य प्रदेश, छतीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनावों के नतीजों का पूरे देश में गहन पोस्टमार्टम हो रहा है। प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक चैनलों से लेकर सोशल मीडिया के महारथियों को कम मिल गया है।कहने वाले कह रहे हैं भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की पराजय आगामी लोकसभा चुनावों के संकेत और संदेश दे रही है। हालांकि वस्तुस्थिति ये है कि तीनों प्रदेशों में भाजपा को मिली पराजय का अर्थ यह कतई नहीं है कि वो आगामी लोकसभा चुनावों में भी मात खाने वाली है।

अगर इन तीनों राज्यों के परिणामों का आप गहराई से अध्ययन करें तो पाएंगे कि छतीसगढ़ को छोड़कर भाजपा ने कांग्रेस को लगभग हर क्षेत्र में कड़ी टक्कर दी। मध्य प्रदेश में तो कांग्रेस को सरकार का गठन करने के लिए अन्य दलों का समर्थन लेना पड़ा । छतीसगढ़ और मध्य प्रदेश में भाजपा पिछले 15-15 सालों से सत्ता पर काबिज थी। इतने लंबे समय तक सरकार चलाने के कारण एंडी इनकंबेसी फैक्टर तो उसके खिलाफ स्वाभाविक रूप से जा ही रहा था। अब आप शीला दीक्षित का ही उदाहरण ले लीजिए। उनकी सरपरस्ती में दिल्ली का 15 सालों तक चौमुखी विकास हुआ। इसपर कोई विवाद की गुंजाइश नहीं है । पर उसके बाद हुए चुनाव में उन्हें नौसिखुआ आम आदमी पार्टी (आप) ने शिकस्त दे दी।

राहुल गांधी ने भी माना है कि “भाजपा ने तीन राज्यों में ( जहां वो हारी) बेहतर काम किया था ।” चुनाव के नतीजें आने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी कांग्रेस को बधाई दी। उन्होंने कहा- “हम जनता के फैसले को विनम्रता के साथ स्वीकार करते हैं।”

यह निर्विवाद है कि मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह का जमीन के साथ जुड़ाव रहा है। उनकी छवि “मामा जी” की रही है ओर मामा कहलाना परिवार के एक महत्वपूर्ण सदस्य कहलाने जैसा ही है। मामा की साफ-सुथरी छवि के कारण ही मध्यप्रदेश में 15 साल के शासन के बाद भी कांटे की टक्कर देने में वे सफल रहे। कांग्रेस को राज्य में 114 सीटें मिलीं और भाजपा को 109 यानि सिर्फ ५ कम। वोट शेयर के स्तर पर भाजपा उन्नीस नहीं रही कांग्रेस से। दोनों पार्टियों को वोट भी लगभग बराबर ही रहे ।कांग्रेस के उम्मीदवारों का विजय का अंतर भी मामूली सा ही रहा।

अब चलते हैं छतीसगढ़ की ओर। हैरानी इस बात को लेकर अवश्य है कि छत्तीसगढ़ में भाजपा को करारी शिकस्त मिली। आश्चर्य इसलिए भी है क्योंकि नक्सल प्रभावित क्षेत्र बस्तर के दंतेवाड़ा में भी रमण सिंह सरकार ने भरपूर विकास के कार्य किए थे। मैं विगत सितंबर के महीने में दंतेवाड़ा के सुदूर इलाकों में गया था। रमण सिंह सरकार ने बस्तर के घने जंगलों के भीतर भी शानदार सड़कों का निर्माण करवा दिया था। क्या आप मानेंगे कि दंतेवाड़ा में आदिवासीयुवक-युवतियों के लिए बीपीओ की स्थापना हुई। वहां पर एक हजार से अधिक आदिवासी युवा-युवती निर्भीक होकर काम कर रहे थे। मैं तो उस बीपीओ को देखकर चमत्कृत रह गया था। छतीसगढ़ के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सशस्त्र नक्सली पुलों और सेतुओं को अपने निशाने पर लेते रहे। वे इंजीनियरों और ठेकेदारों को धमकाते रहे। लेवी वसूलते रहे ।पर वे रमण सिंह के जज्बे को चुनौती नहीं दे सके। रमण सिंह ने राज्य में विकास की रफ्तार को कभी पंगु नहीं होने दिया।उन्होंने राज्य को विश्व स्तरीय सड़कें दी। उन पर सफर करते हुए कोई भी महसूस करेगा कि विकास क्या होता है। दंतेवाड़ा में एक स्कूल खोला गया, उन अनाथ बच्चों के लिए, जिनके माता-पिता नक्सली हमलों में मारे जा चुके थे। बस्तर में आपको मिलता है एक मेडिकल कॉलेज और अस्पताल भी । एक आधुनिक स्टील प्लांट भी।

ये सब करने के बावजूद भी रमण सिंह सरकार चुनाव में हारी। तो क्या हो सकती है छतीसगढ़ में भाजपा की पराजय की वजह? मुझे लगता है कि राहुल गांधी का किसानों से किया गया वादा शायद काम कर गया जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर उनकी पार्टी की सरकार बनी तो वे किसानों के लोन माफ कर देगी। उन्होंने किसानों से उनकी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को बढ़ाने का भी वादा किया। यहां पर छतीसगढ़ कांग्रेस पार्टी के प्रमुख भूपेश बघेल के योगदान को नजरअंदाज करना सही नहीं होगा। वे लगातार राज्य की ग्रामीण जनता के सुख-दुख से जुड़े रहे। वे किसानों के हितों की बात करते रहे। यह भी लगता है कि राज्य के ग्रामीण क्षेत्र में किसानों की चुनौतियां और दुश्वारियां भारी पड़ी भाजपा सरकार के लिए। पर छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों में कांग्रेस को मिली अभूतपूर्व सफलता कई सवाल भी खड़े कर रही है। इस जीत पर कई गंभीर सवालिया निशान भी लग रहे हैं। बस्तर की राजनीति के जानकर पत्रकार दबी जुबान से कह रहे है कि लगता है कि कांग्रेस ने नक्सलियों से अंदरखाने कोई समझौता कर लिया था।

अब अंत में राजस्थान पर भी बात हो जाए। राजस्थान में बीते 25 सालों के परिणाम एक जैसे ही आ रहे हैं। वहां की जनता पांच साल के बाद सत्तासीन दल की सरकार को विपक्ष में बैठने का रास्ता दिखा देती है। पर ध्यान दीजिए कि इस बार वहां पर कांग्रेस को मजे से सत्ता नहीं मिली। कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए जरूरी 100 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा।

इन नतीजों के बाद कुछ चुनाव विशलेषक तो यह दावा कर रहे हैं कि लोकसभा चुनावों में भी भाजपा को नुकसान होगा। उनका ज्ञानवर्धन कर दिया जाना चाहिए कि 1998 के राजस्थान विधान सभा चुनाव में कांग्रेस को 200 सदस्यों वाले सदन में 153 सीटें मिली थीं। भाजपा के खाते में कुल जमा मात्र 33 सीटें ही गई थीं। पर एक साल के बाद हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा को राज्य की 25 में से 16 सीटें मिली। कांग्रेस के खाते में 9 सीटें ही रह गई थीं। इसलिए अभी से लोकसभा चुनावों के नतीजों पर ही चर्चा करने का कोई मतलब नहीं है। हमारा लोकतंत्र मजबूत हो चूका है और जनता जागृत है । लोकसभा में वह यह जरूर देखेगी कि मोदी जी के मुकाबले कौन है ?

इन चुनावों का नतीजों से भाजपा जरूर सीखेगी और 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए अभी से कमर कसने लगेगी। ये नतीजे उसे सोने से जगा देने वाले सिद्ध होने जा रहे हैं।

राजनीति को थोड़ा-बहुत भी जानने वाला जानता है कि सरकारें जनता के दिलों से सत्ता के अहंकार कारण खारिज हो जाती हैं। दरअसल कुर्सी मिलते ही नेता मनमर्जी करने लगते हैं। वे हरेक गलत बात को भी सही ठहराने लगते हैं। इधर मानना होगा कि जिन प्रदेशों में भाजपा हारी वहां की सरकारों को जनता ने अपमानित करके सत्ता से बेदखल नहीं किया। यह उनकी एक बड़ी उपलब्धि ही मानी जाएगी।

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