हिंदू धर्मग्रंथों के मुताबिक सनातन परंपरा में कुल सात ऐसे चिंरजीवी देवता हैं, जो युगों-युगों से इस पृथ्वीलोक पर मौजूद हैं। इन्हीं मे से एक हैं भगवान परशुराम। परशुराम को भगवान विष्णु का छठा अवतार माना जाता है। मान्यता है कि भगवान परशुराम का जन्म मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम प्रभु के जन्म से पहले वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया) के दिन रात्रिकाल के प्रथम प्रहर में हुआ था।

हिंदू जनमानस में परशुराम को अतिक्रोधी स्वभाव का माना गया है, लेकिन देखा जाए तो उन्होंने कभी भी अकारण क्रोध नहीं किया। बतौर उदाहरण जब भगवान परशुराम अपने आराध्य देव शिव के दर्शनार्थ कैलाश पर्वत पहुंचे तो श्रीगणेश ने अज्ञानतावश उन्हें शिव से मुलाकात करने से रोक दिया, जिससे क्रोधित होकर उन्होंने अपने फरसे से उनका एक दांत तोड़ दिया। तभी से भगवान गणेश एकदंत कहलाए।

वहीं रामायण काल में सीता स्वयंवर के दौरान शिव धनुष टूटने के पश्चात भगवान परशुराम ने क्रोध व्यक्त किया था। जिसका वर्णन परशुमराम-लक्ष्मण संवाद के रूप में चर्चित है। इस घटना के दौरान मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम ने भगवान परशुराम को अपना सुदर्शन चक्र सौंपा था। जिसे उन्होंने द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण को प्रदान किया। यह घटना देवत्व के सामर्थ्य के विवेक सम्मत हस्तांतरण का उदाहरण समझी जा सकती है।

लोक श्रुति है कि जब सम्राट सहस्त्रार्जुन का अत्याचार और अनाचार अपनी सीमा पार कर गया तब उन्होंने उसे दंडित किया। परशुराम को जब अपनी मां से पता चला कि ऋषि-मुनियों के आश्रमों को नष्ट करने तथा उनका अकारण वध करने वाला दुष्ट राजा सहस्त्रार्जुन ने जब उनके भी आश्रम में आग लगा दी एवं कामधेनु छीन ले गया, तब उन्होंने पृथ्वी को क्षत्रियों से रहित करने का प्रण लिया।

भगवान परशुराम का विद्या प्रेम अद्भुत है। उन्होंने सूत पुत्र कर्ण और भीष्म पितामह को भी अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दी थी। लेकिन जब उन्हें पता चला कि कर्ण ने झूठ बोलकर उनसे शिक्षा ग्रहण की तब उन्होंने उन्होंने कर्ण को श्राप दिया कि जब तुम्हें अस्त्र-शस्त्र की सबसे ज्यादा आवश्यकता होगी तब तुम यह विद्या भूल जाओगे। माना जाता है कि उनका यही श्राप अंतत: कर्ण की मृत्यु का कारण बना। कर्ण से जुड़ी इस घटना का तात्पर्य यह है कि परशुराम समाज में व्याप्त झूठ को हतोत्साहित करना चाहते थे और वे इसमें सफल रहे।

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