हिंदू धर्मशास्त्रों में यह मान्यता है कि शनिदेव इंसान के हर अच्छे व बुरे कर्मों का फल प्रदान करते हैं। यही वजह है कि भगवान शंकर से उन्हें कर्म दंडाधिकारी का पद प्राप्त है। कृष्ण वर्ण शनि का वाहन गिद्ध है।

कथा अनुसार, सूर्य ने अपने पुत्रों की योग्यतानुसार उन्हें विभिन्न लोकों का अधिपत्य प्रदान किया लेकिन पिता की आज्ञा की अवहेलना करके शनिदेव ने दूसरे लोकों पर भी कब्जा कर लिया। सूर्य के निवेदन पर भगवान शंकर ने अपने गणों को शनिदेव से युद्ध करने के लिए भेजा परंतु शनिदेव ने उन सभी को परास्त कर दिया।

अब विवश होकर भगवान शंकर को ही शनिदेव से युद्ध करना पड़ा। इस भयंकर युद्ध में शनिदेव ने भगवान शंकर पर मारक दॄष्टि डाली तब महादेव ने अपना तीसरा नेत्र खोलकर शनि तथा उनके सभी लोकों को नष्ट कर दिया। इतना ही नहीं भगवान भोलेनाथ ने अपने त्रिशूल के अचूक प्रहार से शनिदेव को संज्ञाशून्य कर दिया।

इसके पश्चात शनिदेव को सबक सिखाने के लिए भगवान शंकर ने उन्हें 19 वर्षों के लिए पीपल के वृक्ष से उल्टा लटका दिया। इन वर्षों में शनिदेव भगवान भोलेनाथ की आराधना में लीन रहे। लेकिन पुत्रमोह से ग्रस्त सूर्य ने महादेव से शनिदेव का जीवनदान मांगा। तब भगवान भोलेनाथ ने प्रसन्न होकर ना केवल शनिदेव को मुक्त कर दिया बल्कि अपना शिष्य बनाकर उन्हें संसार का दंडाधिकारी भी नियुक्त कर दिया।

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