हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार, शिवजी को भस्म बहुत पसंद है। भगवान शंकर की पूजा-अर्चना में भस्म अर्पित करने का विशेष महत्व है। बता दें कि द्वादश ज्योर्तिलिंग में से एक उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर में प्रतिदिन भस्म आरती विशेष रूप से की जाती है। शिव पुराण के मुताबिक, भगवान भोलेनाथ हमेशा मृगचर्म और शरीर पर भस्म लगाए रहते हैं। भगवान शंकर का रहन-सहन, आवास, गण आदि सभी देवताओं से एकदम अलग हैं।

शिवजी का शरीर भस्म से ढंका रहता है। ऐसा माना जाता है कि जब भी सृष्टि का विनाश होता है, तब पुन: इसकी रचना ब्रह्माजी करते हैं। सृष्टि के राख यानि भस्म को शिवजी धारण किए रहते हैं। तात्पर्य यह है कि एक दिन यह संपूर्ण सृष्टि शिवजी में विलीन हो जानी है। अब सवाल यह उठता है कि भगवान शिव ने सबसे पहले कब अपने शरीर पर भस्म धारण किया था।

शिवपुराण में वर्णित कथा के मुताबिक, जब भगवान शिव के अपमान से आहत उनकी पत्नी सती ने यज्ञ के हवनकुंड में कूदकर अपने प्राणों की आहूति दी थी, तब भगवान शिव को बहुत संताप हुआ। उन्होंने विरह की अग्नि में भस्म को ही उनकी अंतिम निशानी के तौर पर तन पर लगा लिया था। अर्थात भोलेनाथ ने अपने तन पर जो भस्म लगाई थी, वो उनकी पत्नी सती की चिता की भस्म थी।

एक मान्यता यह भी है कि भगवान शिव का निवास कैलाश पर्वत है। कैलाश पर्वत का वातावरण एकदम से प्रतिकूल है। इस प्रतिकूल वातावरण को अनुकूल बनाने में भस्म महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भस्म की यह विशेषता होती है कि यह शरीर के रोम छिद्रों को बंद कर देती है। इसे शरीर पर लगाने से गर्मी में गर्मी और सर्दी में सर्दी नहीं लगती। भस्म त्वचा संबंधी रोगों के लिए भी दवा का काम करती है। इस प्रकार शरीर पर भस्म धारण करने वाले भगवान भोलेनाथ ने सभी को यह महत्वपूर्ण संदेश दिया है कि परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढाल लेना चाहिए।

Related News