शिव महापुराण में भोलेनाथ द्वारा त्रिपुरासुर के वध का वर्णन विस्तार ​से किया गया है। त्रिपुरासुर ने हजारों वर्ष तक अत्यंत दुष्कर तप करके ब्रह्माजी को प्रसन्न किया। ब्रह्माजी के वरदान से उन्मत त्रिपुरासुर ने स्वर्गलोक पर आक्रमण करके देवताओं को वहां से बाहर निकाल दिया। सभी देवगण अपनी रक्षा के लिए भगवान शिव की शरण में चले गए। इसके बाद महादेव ने स्वयं ही त्रिपुरासुर का संहार करने का संकल्प लिया।

कहा जाता है कि त्रिपुरासुर का वध करने में भगवान शिव बार-बार असफल हो रहे थे। इसके बाद वह इस बात विचार करने लगे कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। तब उन्हें विचार आया कि उन्होंने अपने पुत्र श्रीगणेश की पूजा नहीं की, इसलिए उनका कार्य सिद्ध नहीं हो रहा है। तब महादेव ने मोदक अर्पित करते हुए श्रीगणेश की पूजा की तथा अपनी भूल स्वीकार की।

महादेव ने पृथ्वी को रथ बनाया, सूर्य और चन्द्रमा पहिए बन गए, सृष्टा सारथी बने, विष्णु बाण, मेरूपर्वत धनुष और वासुकी बने उस धनुष की डोर। इस युद्ध में महादेव में त्रिपुरासुर का अंत कर दिया। कहा जाता है कि त्रिपुरासुर को जलाकर भस्म करने के बाद भोलेनाथ का हृदय द्रवित हो उठा और उनकी आंख से आंसू टपक गए। आंसू जहां गिरे वहां रुद्राक्ष का वृक्ष उग आया।

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