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हिंदू धर्मशास्त्रों में जीवित व्यक्ति को भी अपना श्राद्ध कराने का विधान है। अगर कोई व्यक्ति नि:संतान है अथवा वह अपनी संतानों के प्रति उपेक्षा का शिकार है, तो संबंधित व्यक्ति को तनावग्रस्त रहने की कोई आवश्यकता नहीं है कि उसका श्राद्ध आखिर कौन करेगा ?

जी हां, दोस्तों आपको जानकारी के लिए बता दें कि विभिन्न शास्त्रों में जीवित व्यक्ति को अपना श्राद्ध करने का विधान वर्णित है। यह श्राद्ध किसी भी महीने में कृष्ण पक्ष की द्वादशी से लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तक पांच दिन में किया जाता है।

इन शास्त्रों में उल्लेखित है जीवित व्यक्ति के श्राद्ध का विधान

आदि पुराण, बौधायन गृह्यशेष सूत्र, आदित्य पुराण, कृत्य कल्पतरु, हेमाद्रि, वीरमित्रोदय श्राद्ध प्रकाश जैसे ग्रंथ इस बात का आदेश देते हैं कि जीवित व्यक्ति भी अपना श्राद्ध कर्म करा सकता है। यदि कोई व्यक्ति यह कर्म करने में समक्ष नहीं है, इस परिस्थिति में उसका प्रतिनिधि यह कर्म करा सकता है।

महर्षि सूतजी ने बताई थी इसकी विधि

जीवित अवस्था में स्वयं के कल्याण के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध जीवित श्राद्ध कहलाता है। ऋषियों के पूछने पर सूतजी ने कहा था कि जीवित व्यक्ति पर्वत पर, नदी तट पर, वन में या निवास स्थान में यह श्राद्ध करा सकता है। ऐसा करने से संबंधित व्यक्ति जीवनमुक्त हो जाता है।

माता-पिता व पूर्वजों की मुक्ति

जीवित व्यक्ति के श्राद्ध करने लेने से उसके मां-बाप और पूर्वज लोग नर्क से मुक्ति पा लेते हैं। हांलाकि यह परंपरा लोक व्यवहार में बहुत कम देखने को मिलती है। भारतीय शास्त्रकारों ने यह अद्भुत व्यवस्था दी है। इस विधि को ब्रह्माजी ने सबसे पहले वसिष्ठ, भृगु व भागर्व ऋषि से कही थी। वर्तमान समय में श्राद्ध की यह व्यवस्था बिल्कुल प्रासंगिक है, क्योंकि नि:संतान दंपत्ति अथवा संतान द्वारा उपेक्षित अधिकांश बुजुर्ग बड़ी आसानी से अपना श्राद्ध कर्म करा सकते हैं।

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