इस संसार में कुछ लोग कम मेहनत में ही ज्यादा लाभ पाने की इच्छा रखते हैं, वहीं कुछ लोग यह भी चाहते हैं कि उन्हें बिना काम किए ही सभी सुख-सुविधाएं मिल जाए। यह सार्वभौमिक सत्य है, इस सृष्टि में कोई भी हो, उसे अपनी जीविका के लिए कुछ ना कुछ काम तो जरूर करना पड़ता है। महाभारत में अश्वत्थामा और भगवान श्रीकृष्ण से जुड़ा एक बहुत ही रोचक प्रसंग है। चूंकि इस प्रसंग में लाइफ मैनेजमेंट के सूत्र छुपे हैं, इसलिए इसे ध्यान से पढ़ें।

कौरवों और पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा एक महायोद्धा था। एक बार वह श्रीकृष्ण की नगरी द्वारिका गए। भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को अतिथि के रूप में अपने महल में ठहराया तथा बहुत स्वागत किया।

कुछ दिनों तक द्वारिका में रहने के बाद द्रोणाचार्य पुत्र अश्वत्थामा ने श्रीकृष्ण से कहा कि- आप मेरे अजेय ब्रह्मास्त्र के बदले में अपना सुदर्शन चक्र मुझे दे दें। श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा की बात मान ली। उन्होंने कहा- ठीक है, मेरे किसी भी अस्त्र में से जो तुम चाहो, वो उठा लो। मुझे तुमसे कुछ नहीं चाहिए।

फिर क्या था अश्वत्थामा ने भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र को उठाने का कई बार प्रयास किया, लेकिन सुदर्शन चक्र अपनी जगह से हिला तक नहीं। जब अश्वत्थामा हार मान गया तो भगवान ने उसे समझाते हुए कहा- अतिथि की अपनी सीमा होती है। उसे कभी भी वह चीजें नहीं मांगनी चाहिए जो उसकी सामर्थ्य से बाहर हो।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- यह सुदर्शन चक्र मुझे अत्यंत प्रिय है, इसके लिए मैंने 12 साल तक घोर तपस्या की थी। तुमने इसे बिना कुछ किए ऐसे ही मांग लिया। श्रीकृष्ण की बातों से अश्वत्थामा बहुत शर्मिंदा हुए और द्वारिका से चले गए।

इस प्रसंग से यही सबक मिलता है कि किसी से कुछ भी मांगते समय अपनी मर्यादाओं का ध्यान रखना चाहिए। इतना ही नहीं कोशिशों के अनुपात में ही फल की उम्मीद करनी चाहिए।

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