हिंदुस्तान के इन असली ठगों से अंग्रेज भी डरते थे, ठगी करने के लिए अपनाते थे ये अनोखा तरीका
सन् 1809 में इंग्लैंड ने अंग्रेज अफसर कैप्टन विलियम स्लीमैन को भारत में ठगों की कमर तोड़ने की जिम्मेदारी सौंपी। इसके बाद स्लीमेन ने ठगी प्रथा का अंत कर दिया। कर्नल स्लीमैन को ब्रिटीश सरकार ने सर की उपाधि से नवाजा था।
बता दें कि 19वीं सदी में अंग्रेजी सरकार को भारत में जिन ठगों से पाला पड़ा था, वह कोई मामूली लोग नहीं थे। इनसे निपटने के लिए अंग्रेज़ों को एक अलग डिपार्टमेंट बनाना पड़ा था। यही विभाग आगे चलकर इंटेलिजेंस ब्यूरो या आईबी के नाम से जाना गया।
भारत में अवध, बनारस से लेकर दक्कन तक ठगों का जाल फैला था। इन्हें पकड़ना इसलिए मुश्किल था क्योंकि यह खुफिया तरीके से काम करते थे। ये ठग योजनाएं बनाकर बड़ी चालाकी से अपना काम करते थे, ताकि किसी को शक ना हो।
ठगी करने निकले इन ठगों का गिरोह 20 से 50 तक का होता था। आमतौर पर यह तीन दलों में बंटे होते थे। इन तीनों दलों में तालमेल बनाने के लिए हर टोली में एक-दो लोग होते थे जो एक कड़ी का काम करते थे। ये लोग अपनी चाल धीमी या तेज करके इनके साथ आ सकते थे।
ज्यादातर ठग कई भाषाएं बोलने, भजन-कीर्तन, नात-क़व्वाली और गाना-बजाना में माहिर थे। ठगों की इन टोली में हिंदू-मुसलमान दोनों धर्मों के लोग थे। जरूरत के हिसाब ये जायरीन, बाराती, तीर्थयात्री या फिर नकली शवयात्रा निकालने वाले बन जाते थे। रास्ते में यह कई बार अपना रूप बदल लेते थे। धीरज से काम लेने वाले यह ठग भेष बदलने में बहुत माहिर थे। शिकार को बिना भनक लगे बड़ी चालाकी से दबोच लेते थे।
फ़िलिप मीडो टेलर की किताब 'कनफ़ेशंस ऑफ़ ए ठग' में हिंदुस्तान के इन ठगों के बारे में बहुत विस्तार से बताया गया है। ये ठग कभी मौलवी, सेठ या तीर्थयात्रियों का नेतृत्व कर रहे पंडित की तरह बन जाते थे। ये लोग शिकार की ताक में अक्सर सरायों के आस-पास मंडराते थे। माल-असबाब और हैसियत का अंदाजा लगाकर ही यह शिकार को अपने जाल में फंसाते थे।
शिकार की पहचान करने के बाद रास्ते भर धीरे-धीरे ठग एकत्र होने लगते लेकिन वह ऐसा दिखाते थे जैसे एक दूसरे को पहचानते तक नहीं हैं। अपने ही जत्थे में शामिल होने से रोकने का नाटक करते थे, जिससे लोगों को शक तक ना हो। बहुत धैर्य से काम लेते थे, हड़बड़ी की गुंजाइश तनिक भी नहीं थी। कभी-कभी सही मौके की तलाश में हफ़्ते-दस दिन तक इंतजार करना पड़ता था।