इंटरनेट डेस्क। ऐसी ही स्थिति के कारण पूरी बैंकिंग व्यवस्था पटरी से तेजी से उतरनी जा रही है। यह पूरी तरह से विश्वास पर टिकी होती है। वही समाप्त होता जा रहा है। देश को और बड़ी अर्थव्यवस्था बताने वालों को यह बता ही नहीं है कि ऐसे ही अविश्वास के कारण खातेधारी अपने लोकर्स तक को आशंकित होकर खाली कर व स्थाई जमा खातों को घाटा उठा कर भी तुड़वा रहे हैं। बैंकें पता नहीं कब भुगतान करने से कब मना कर दे की अवधारणा अब विशेष रूप से ग्रामीण व काली कमाई करने वालों के बीच फैलती जा रही है। जन धन योजना के खातेधारी खाता खाली हो जाने का रोना रोते रहते हैं। इतना ही नहीं बैंकिंग व्यवहार के लिये डिजिटल इंडिया में न्यूनतम पांच गुणा समय लगने लगा है। बैंकों ने दूसरी ब्रांच के खातेधारियों के लिये अडंगे लगा कर काम करना बंद सा कर दिया है। ऐसे में जीडीपी बढ़ाने वाला विकास कहां हो रहा है। किसी के भी समझ में नहीं आ रहा है। इसे बढ़ी हुई दिखाने के लिये वैधानिक सट्टेबाजी वाले शेयर बाजार को हर तरह से ऊंचा किया जा रहा है। जबकि उसमें वास्तव में रोज व्यवहार करने वाले पांच लाख से अधिक लोग नहीं है। बम्बई सूचकांक जिसमें 50 कम्पनियों व निफ्टी जिसमं 30 कम्पनियों के शेयर्स की प्रतिदिनकी औसत गढत बढत के आंकड़े दिये जाते हैं कि ऊंचाई को विकास का मापदंड मान लेना वास्तविकता से मुंह मोडऩे के समान ही है।

हम संसार की छठी बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने के बाद भी यहां पर संसार के सर्वाधिक निरक्षर, बेरोजगारी, एचआईवी, ब्लड प्रेशर, शूगर, मानसिक रोगों, कैंसर, तपेदिक, टीबी, मिर्गी, हार्ट अटैक, अनामिक,अंधे, बहरे लंगड़े, निशक्त, विधवा, विधुर, जन्म के एक वर्ष में प्राण त्यागने वाले निर्बल वृद्ध, अनाथ, भूखमंगे, भिखारी, उच्चके, पीडि़त महिलाएं आदि क्यों हैं? इसका उत्तर किसी सरकार के पास नहीं है। वे यह भी नहीं बता पाती हैं कि इतने विकास के बाद भी भारत में संसार भर के देशों की तुलना में सर्वाधिक किसान, महिलाएं व युवा प्रतिवर्ष आत्महत्या क्यों करते हैं, क्यों परिवार के सारे सदस्यों द्वारा आत्महत्या करने का नया दौर शुरू हो गया है? क्यों अवैध वैश्याएं करोड़ों की संख्या में हो गई हैं? क्यों चार माह तक की बच्चियों से बलात्कार के समाचार आम हो चले हैं? क्यों इलाज नहीं हो पाना गरीबी का सबसे बड़ा कारण है?

पांच लाख रुपये वार्षिक के बीमारी बीमा के बावजूद निशुल्क दवा योजना के तहत पांच रुपये की टेबलेट भी समय पर क्यों नहीं मिल पा रही है? हर सरकारी व निजी अस्पतालों में बीमार कीड़े मकोड़ों की तरह नजर क्यों आते हैं? क्यों सडक़ दुर्घटनाएं सर्वाधिक क्यों होती है? क्यों सतरह सौ की सामान्य पुलिसकर्मी हेतु भर्ती हेतु 15 लाख युवा आवेदन क्यों करते हैं? क्यों हर भर्ती प्रक्रिया अपने अंतिम अंजाम तक नहीं पहुंच पाती है? क्यों अरबपतियों की देश छोडक़र जाने की दर तेजी से बढ़ती जा रही है? बैंकें अपनी मुद्रा लुटते देख कर भी असहाय क्यों बनी हुई हैं? बैंकों को डूबने से बचाने के लिये सरकार जमाकर्ता के साथ विश्वासघात वाला कानून क्यों लाना चाहती है? लाखों की संख्या में उत्पादक इकाइयां क्यों गंभीर रूप से बीमार हो रही है? हर प्रयत्न के बाद भी शेयर बाजार के अलावा विकासपरक क्षेत्रों मेें विदेशी निवेशक नहंी आ रहे हैं? क्यों जितना विदेश निवेश भारत में हो रहा है करीब उसके बराबर ही भारतीय निवेशक विदेशों में निवेश कर रहे हैं?

ऐसे सैकड़ों प्रश्रों का उत्तर दिये बिना केवल आंकड़ों के सहारे अर्थव्यवस्था को बड़ा करते जाने का व्यवहार में जनकल्याण की दृष्टि से कोई सार्थक अर्थ नहीं है? एक भारतीय का एशिया में सबसे अधिक धनी होना वैसे तो सम्पदा वृद्धि का नहीं बल्कि शेयर बाजार में पूंजीकरण के मूल्य में वृद्धि का परिणाम है। जिसका उत्पादन, विनिमय, वितरण, रोजगार जैसी आर्थिक क्रियाओं से कोई संबंध नहीं है और यह यथार्थ ही सिद्ध करता है कि अर्थव्यवस्था की ‘विशालता’ के साथ आर्थिक असमानता ही बढ़ रही है। जनकल्याण याने अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम कल्याण तो हो ही नहीं रहा है। यह तब ही संभव है जब अर्थव्यवस्था का आकार भले ही छोटा हो लेकिन विकास का वितरण यथा संभव समान हो। ऐसा एक सीमा तक हो सकना तब ही संभव हो सकता है जब जीवन के हर क्षेत्र में यथार्थ को सभी पक्षों द्वारा स्वीकार किया जाये एवं हर बात में राजनीति से बचा जाये। क्योंकि हर राजनैतिक दल का भी अंतिम लक्ष्य प्रचारित नहीं बल्कि प्रमाणित होने का ही है। जो महसूस किये जा सकने वाले जन कल्याण से ही संभव है।

(ये लेखक के निजी विचार है)

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