इंटरनेट डेस्क। यह सच है कि आजादी के दिनों में बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर दलितों के मसीहा बने। उन्होंने दलित उत्थान के लिए कई विशेषाधिकारों को सुरक्षित बनाया। आजादी के बाद कुछ दिनों बाबू जगजीवन राम ने भी दलित राजनीति के पोस्टर ब्यॉय के रूप में अहम भूमिका निभाई। लेकिन अगर हम कांशीराम की बात करें तो यही एक मात्र ऐसे नेता हुए जिन्होंने दलित समाज को एक जगह एकत्र करने का काम किया। भारत में दलित चेतना लाने का वास्तविक श्रेय इसी नेता को जाता है।

1958 में स्नातक करने के बाद कांशीराम पुणे के डीआरडीओ में बतौर सहायक वैज्ञानिक नौकरी करनी शुरू कर दी। इस दौरान अंबेडकर जयंती पर सार्वजनिक छुटटी के किए जाने वाले संघर्ष को लेकर उनका मन ऐसा बदला कि उन्होंने आजीवन दलित समाज के लिए काम करने का बीड़ा उठा लिया। सैकड़ों किमी साइकिलें चलाई, मीलों पैदल चले तथा फटी हुई कमीज पहनकर दलित समाज के लिए संघर्ष करना शुरू किया।

अधिकांशतया नीली और सफेद कमीज पहनने वाले कांशीराम ने साल 1984 में बसपा का गठन किया। मायावती को यूपी की कुर्सी पर किसी पहली महिला दलित मुख्यमंत्री को आसीन किया। शुगर और ब्लड प्रेशर की समस्या से कांशीराम की हालत बिगड़ती ही गई। 1994 में दिल का दौरा तथा 2003 में उन्हें ब्रेन स्ट्रोक आया, जिसके चलते वह सार्वजनिक जीवन से दूर हो गए। अंत में 9 अक्टूबर 2006 को कांशीराम इस दुनिया से चल बसे।

दलितों के लिए जीने मरने वाले कांशीराम ने घर छोड़ने से पहले परिजनों के नाम 24 पन्ने की एक चिटठी लिखी थी। उस पत्र में उन्होंने लिखा था कि मैं कभी घर वापस नहीं लौटूंगा और ना ही कभी अपना घर बनाउंगा। परिजनों अथवा रिश्तेदारों की शादियों अथवा अंतिम संस्कार में भी शामिल नहीं होउंगा। उनके परिवारवाले कई बार उन्हें लेने के लिए लेकिन कांशीराम ने हर बार घर जाने से इनकार कर दिया। इस प्रकार वंचितों, दलितों को फर्श से अर्श तक पहुंचाने वाले कांशीराम का जीवन किसी संन्यासी से कम नहीं है। कांशीराम के त्याग और समपर्ण ने वह कर दिखाया जो बड़े-बड़े संन्यासी भी नहीं कर पाए।

Related News