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महाभारत युद्ध एक धर्मयुद्ध था जिसमें भगवान कृष्ण ने अहम भूमिका निभाई थी। उन्होंने सभी को अपना पक्ष चुनने के लिए प्रेरित किया, चाहे वह धर्म के साथ हो या अधर्म के साथ। हालाँकि, जैसे-जैसे ज़्यादा लोग युद्ध में शामिल होते गए, युद्ध तेज़ होता गया, जिससे भारी रक्तपात हुआ। कहा जाता है कि आज भी कुरुक्षेत्र की धरती लाल है।बकि कृष्ण युद्ध को रोक सकते थे, उन्होंने ऐसा नहीं किया, जिससे गांधारी ने सवाल उठाए और ऋषि उत्तंक भी कृष्ण से नाराज थे।

गांधारी ने कृष्ण को अपने वंश के विनाश के लिए श्राप दिया, जबकि ऋषि उत्तंक ने श्रीकृष्ण से कहा कि ‘इतने ज्ञानी और शक्तिशाली होते हुए भी आप युद्ध को रोक नहीं सके। कृष्ण ने शांति से जवाब देते हुए कहा, "यदि ज्ञान और मार्गदर्शन दिया जाता है, फिर भी कोई गलत काम करता है, तो ज्ञान देने वाले का क्या दोष है? अगर मैं अकेला ही सब कुछ करूँ, तो दुनिया में दूसरे लोगों की क्या आवयश्कता थी?"

पौराणिक कथा के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ने युद्ध रोकने के लिए दूत बनकर हस्तिनापुर जाकर पांडवों और कौरवों के बीच शांति स्थापित करने का प्रयास किया था। हालाँकि, दुर्योधन ने उनके प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया और युद्ध पर ज़ोर दिया। यह समझते हुए कि दुर्योधन समझौता नहीं करेगा, कृष्ण ने योद्धा के रूप में लड़ने से परहेज किया और इसके बजाय अर्जुन को अपना सारथी बनाकर उसका मार्गदर्शन करना चुना।

युद्ध का उद्देश्य

कृष्ण जानते थे कि युद्ध कई कारणों से ज़रूरी था:

धर्म की स्थापना: युद्ध का उद्देश्य कौरवों के अत्याचार को समाप्त करना और धार्मिकता को बहाल करना था।
कर्म और न्याय: कृष्ण ने इस बात पर ज़ोर दिया कि हर किसी को अपने कर्मों के परिणामों का सामना करना चाहिए। कौरवों को अपने कुकर्मों का फल भोगना पड़ा।
नैतिक सिद्धांत: कृष्ण ने न्याय का समर्थन किया, यह सुनिश्चित करते हुए कि मानवता का नैतिक ताना-बाना बरकरार रहे।
कर्तव्य और स्वतंत्रता: उश्री कृष्ण ने अर्जुन से यह भी कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन स्वतंत्रतापूर्वक और निस्वार्थ भाव से करना चाहिए। उन्होंने युद्ध को एक कर्म के रूप में देखने और उसे निस्वार्थ भाव से करने का संदेश दिया।

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